*श्रील प्रभुपाद उपदेशामृत*
*प्रश्न – नित्य कल्याण प्राप्त करने का उपाय क्या है ?*
भगवद् भक्तों की शुभ आकांक्षा होती है कि लोग अकल्याण के मार्ग पर न चलें, बल्कि सभी कल्याण के मार्ग पर चलें। उस नित्य कल्याण का उपाय है-कृष्ण के प्रिय श्रीगुरुदेव के चरणों में आत्मसमर्पण। जिनके चरणकमलों की सेवा प्राप्त करने से कृष्ण की सेवा प्राप्त होती है, श्रीरूप गोस्वामी से अभिन्न उन गुरुदेव की सेवा दृढ़ विश्वास और प्रीतिपूर्वक करनी चाहिए तथा हरिभजन के विषय में उनके श्रीमुख से सुनना चाहिए । श्रीगुरुदेव की चरणधूलि प्राप्त होने पर भुवन-मंगल कृष्ण की माधुर्यमय सेवा प्राप्त की जा सकती है । इसलिए श्रीगुरुदेव के चरणकमलों का नित्यकाल भजन करना चाहिए । श्रीगुरुदेव अप्राकृत जगत् के निवासी हैं, इस जड़-जगत् के नहीं ।
वे अनित्य वस्तु अथवा रक्त एवं मांस के पिंड नहीं हैं। उनका स्वरूप भी भगवान के समान ही सच्चिदानन्दमय है। श्रीगुरुपादपद्म नर- ब्रह्म हैं, साधारण नर नहीं हैं। जो भगवान एवं गुरु को जगत् की वस्तु मानते हैं, वे कदापि सेवा नहीं कर सकते और यदि करते भी हैं तो वह अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए एक ढोंग मात्र है। वह शुद्ध सेवा नहीं है, उसको बनिया वृत्ति कहते हैं। जीव जब तक भजनीय वस्तु गुरुदेव का पूर्ण रूप से आनुगत्य नहीं करता, तब तक उसे भगवान का दर्शन नहीं होता। जो श्रीगुरुदेव को अप्राकृत तत्त्व अथवा उन्हें श्रीकृष्ण का प्रिय नहीं मानते हैं, वे कदापि (चित् राज्य) कृष्ण-सेवा-राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते । श्रीगुरुदेव की कृपा होने से ही हम अप्राकृत राज्य अथवा कृष्ण के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण कर चेतनमय दिव्य चक्षुओं के द्वारा उनका दर्शन कर सकते हैं। स्वयंरूप श्रीकृष्ण चरणकमलों के निकट पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त कर धन्य और कृतार्थ हो सकते हैं। प्राकृत विचारों में आबद्ध रहकर कभी श्री रूप गोस्वामी से अभिन्न श्रीगुरुदेव का दर्शन सम्भव नहीं है। इसलिए भजनीय वस्तु गुरु एवं कृष्ण का निष्कपट रूप से भजन करने से ही कल्याण होता है तथा भोग पर दर्शन समाप्त हो जाता है। इसलिए हमारी प्रार्थना है –
*आददानस्तृणं दन्तैरिदं याचे पुनः पुनः।*
*श्रीमद्गुरुपदाम्भोजधूलि स्यां जन्मजन्मनि ।।*
अर्थात् मैं दाँतों में तृण धारण कर दीनतापूर्वक पुनः – पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कुछ भी नहीं चाहता हूँ। मैं तो केवल श्रीगुरुदेव के चरणकमलों की धूलि होना चाहता हूँ। जिस प्रकार वे निरन्तर भगवान की सेवा में नियुक्त रहते हैं, उसी प्रकार उनके आनुगत्य में मैं भी सदा-सर्वदा भगवान की सेवा करना चाहता हूँ। कृष्ण मेरे हैं, यदि मैं उनकी सेवा नहीं करूँगा तो उन्हें बहुत कष्ट होगा- जब तक ऐसे विचार हमारे हृदय में उदित नहीं होंगे, तब तक कृष्ण की प्राप्ति असम्भव है । श्रीगुरुदेव की प्रीतिपूर्वक सेवा के द्वारा ही यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है।
*जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर*
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